उस रोज़…

उस रोज़
जब नींद ने
अलविदा कहा
ऐसा लगा
बरसों पुराने किसी
दोस्त से
बिछड़ना हुआ
खुद को जब
आईने में देखा
ऐसा लगा
किसी अजनबी
से मुलाकात हुई
हस्ते हुए
चेहरे के पीछे
उस अक्स को
पहचान न सकी
आंगन में
कबूतरों की
गुटर गु कुछ
नागवार सी लगी
उनकी आवाज़
उदासीन सी लगी
बरगद का वह पेड़
जो मेरे बचपन
का राजदार था
मुझे देख
सन्नाटे में लिपट गया
सुबह की वह अदा
मन को बेहाल
कर गयी
जो समझ पाती
उनका पैगाम
तो जानती
उस आखरी रोज़ में
जो बात थी
वह आनेवाली
हर सुबह हर शाम से
हमेशा, हमशा के लिए
अब जुदा थी

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आशा सेठ