एक छत के नीचे…

सुबह जब
घर से निकलता
उसका चेहरा
दिल में लिए चलता
रास्ते भर यही सोचता
कब तक ऐसे चलेगा
फटे पुराने चप्पल
रास्तों से लड़ते
इसी तरह रोज़
गुज़ारे की तलाश में
दिन से रात
रात से दिन करता
शाम को जब घर लौटता
वो बैठी रहती
पैर पसारे
मेरा इंतज़ार करते
मुझे देख
मुस्कुराती
मानो जैसी कहती
‘आ गए न मेरे पास?
आखिर जाते कहाँ?’
और फिर
भूख से भर पेट
हम सोते एक साथ
मैं और मेरी गरीबी
एक छत के नीचे…

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आशा सेठ