सुबह जब
घर से निकलता
उसका चेहरा
दिल में लिए चलता
रास्ते भर यही सोचता
कब तक ऐसे चलेगा
फटे पुराने चप्पल
रास्तों से लड़ते
इसी तरह रोज़
गुज़ारे की तलाश में
दिन से रात
रात से दिन करता
शाम को जब घर लौटता
वो बैठी रहती
पैर पसारे
मेरा इंतज़ार करते
मुझे देख
मुस्कुराती
मानो जैसी कहती
‘आ गए न मेरे पास?
आखिर जाते कहाँ?’
और फिर
भूख से भर पेट
हम सोते एक साथ
मैं और मेरी गरीबी
एक छत के नीचे…
~~~~~
आशा सेठ
That’s really incredible piece of writing… The way it ended… Bahut hi sundar rachna…
LikeLike
दिल को छू सी गए शब्द
LikeLike
लाजवाब 👍 👏
LikeLike
The last few lines hit the reader really hard… strong feelings evoked Asha. Bahut khoob likha hai 👌
LikeLiked by 1 person
waah. bahut hi khubsurati se likha hai.👌👌
LikeLiked by 1 person
उम्दा 👌
LikeLiked by 1 person
बहुत खूबसूरत लिखा है आपने…गरीबी को भी इतनी सुंदर तरीके से बताया आपने 👌👌👌
LikeLiked by 2 people
शुकृिया!!
LikeLiked by 1 person