जो दास्ताँ जुबां पर है
वह उन्हें बताते कैसे
कहते भी तो क्या
वो अपनाते उन्हें
गैरों के बीच जो
रातें काटी हमने
उनके चौखट पर
अजनबी का दर्जा
न गवारा था हमें
ज़िन्दगी बीत गयी
दो पल की दिल्लगी
के आस में
और जो दास्ताँ जुबां पर थी
बरसों हुए उन्हें भुलाये हमें
