कुछ दिनों से
मन आतुर रहता है
समझ नहीं आता
आखिर यह चाहता क्या है
कुछ सवालों के जवाब
ढूंढता रहता है
भूले बिसरे यादों से
जबरन आंखें चार करता है
अधूरी कहानियों के अंत
बूझता रहता है
आदतन खोया रहता है
सूखे ज़ख्मों को
कुरेदता रहता है
कोई इससे पूछे ज़रा
आखिर यह माजरा क्या है
इसकी लाचारी पे
दिल भर आता है
अब न तो इसका पागलपन सहा जाता है
न इसे इसकी हाल पे छोड़ते ही बनता है
